Wednesday, September 14, 2011

नमन-1

नमन

नमन उस शक्ति को जो हमारे भीतर और हमारे आस-पास प्रवाहित है. उसी से अलग-अलग रूप हैं,
इन्हीं रूपों का खेल हमारा जीवन है. इसी सत्ता के आधार को लेकर हमारे अनुभवों का संसार है.
हम अपने अपने अनुभवों को सत्य माने, ऐसा विधान भी इस अमापनीय स्फूर्ति का खेल है

मैं जो लिखता हूँ, उसके पीछे जो सोच है, उस सोच के पीछे, इस तन-मन संघात पर पड़े
प्रभावों का सहज प्रकटन है. क्या ये चिंतन मेरा है? क्या ये शब्द मेरे हैं? एक दिन ऐसा था
जब न मैं कोइ भाषा जानता था. अभिव्यक्ति का 'अ' भी नहीं आता था. फिर धीरे-धीरे
मैंने कभी 'माँ' कहा. सुन-सुन कर शब्दों के अर्थ जाने, सुन-सुन कर शब्दों के जुड़ने से बनते
वाक्यों में निहित 'अर्थ सहेजने' के अद्भुत सामर्थ्य का पता चला. अपने हंसने और रोने के कारणों
का विश्लेषण करने, अपनी प्रसन्नता के साथ साथ औरों तक प्रसन्नता संचारित करने की
शब्द सामर्थ्य का परिचय होने लगा


मैं जब सागर के किनारे खड़े होकर लहरों का उछलन देखता हूँ, उनकी मस्ती को
निर्देशित करने की सामर्थ्य मेरी नहीं. पर लहरों की चंचलता का जो एक उद्धाम स्पर्श है
वह खुले हुए मन में अनुभूति के कुछ स्वच्छ पदचिन्ह धर देता है. पर कुछ समय बीतने के
बाद, मैं सागर से असम्पृक्त भी हो सकता हूँ, मेरे भीतर नित्य-नूतन की प्यास है, जिसका प्राप्य
पेड़ों में भी है, सागर में भी है, उड़ाते पंछियों की गतिमान आकृति में भी है और सूर्य किरणों के
साथ धरती पर छाया के बदलते प्रभाव में भी है.
कभी कभी ये सब मेरे भीतर की गुंजन से इतने एक-मेक हो जाते हैं की लगता है संसार में
मेरे सिवा कुछ है ही नहीं.
मैं सब कुछ हूँ और जब मैं अपने सब कुछ होने का दावा करता हूँ तो सब कुछ मुझसे छूट
जाता है 
शून्य हो जाता है


जीवन में सबसे अच्छा लगने वाले क्षणों में से कुछ वो अवश्य होते हैं
जब हमने कुछ नया सीखा होता है
और हर दिन कुछ न कुछ सीखने की सम्भावना जगत हमारे लिए
सुलभ करवाता है 
पर अनुभवों के अव्यवस्थित समूह में बैठ कर हम सीखने के लिए आवश्यक 
खुलापन खो देते हैं    
या तो जो है, उसे वैसा ही बनाए रखने का आग्रह प्रबल हो जाता है
या फिर अपनी सीखने की क्षमता पर हम प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं


कितना सीखें, क्या-क्या सीखें, क्यूं सीखें, कई बार हम जीवन को
जिस क्रमबद्ध विकास के स्वरुप में देखने की लालसा रखते हैं
उसका स्वरुप अस्पष्ट रहने से भी 'सीखने' के प्रति एक दुराग्रह
सा 'व्यावहारिकता' के नाम पर उभर आता है

कई बार हम एक ही तरह से 'अपने चिंतन' की धारा के प्रवाह में
आते एक ही प्रकार के उतार-चढ़ाव से ऊब जाते हैं

 
सीखने के लिए अपेक्षित नयेपन का आविष्कार करने की चुनौती
स्वीकार करने से ही संसार का रूप बदला है

नमन उन सबको जिन्होंने अपने घेरे से परे देखने-समझने और
सीखने का प्रयास किया. 
जिन्होंने मानवता से प्रेम किया, वे सब हमारे लिए कल्याणकारी
पथ के उज्जवल चरण चिन्ह छोड़ गए हैं

सहसा उसमें एक नई उमंग ने करवट ली
मुझे महापुरुषों के बताये पथ पर चलना है
 उसने अपने आप को इस पथ तक अपने 
अनूठे ढंग से पहुँचने का मधुर उत्तरदायित्व दिया
शब्दों ने मौन का हाथ पकड़ कर उस पर
आशीषयुक्त प्रसून बरसाए


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१४ सितम्बर २०११     

1 comment:

  1. बहुत अनुपम विचार प्रस्तुत किये हैं आपने.
    बार बार मनन करने योग्य हैं.

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